बहुत दिनों से कोई आहट नहीं हुई तेरी कलम से गुफ्तगू नहीं हुई किस कशमकश मे है तुम्हारी सोच की किसी तुम्हारे ख्याल से मुलाकात नहीं हुई आज फिर टपकती बूंदों की कलाहल में कुछ आरज़ू है तेरे साथ मुशैरे मैं गुफ्तगू की आरज़ू है चल दोस्त उन शब्दों के जाल कुछ इस तरह बुने कुछ दिल की बातो से दोस्ती के नये मायने गिने इस कविता को अधुरा छोड़े देता हु की मिल कर अपने ख्यालो से इसे पूरा करें...
वहा नज़ारा क्या होगा जहा तेरा मुकाम होगा उस वक़्त को हम भी देखे गे जब फलक से टूटता तारा तेरा निशा होगा शायद वोह भी फना हो जायेगे तेरी मोहोबत का वोह असर होगा
बात इतनी सी थे की तुम्हे इश्क था और उन्हें कहा तो होता वोह गुम सा खड़ा तेरी मजार पर सोचता है इश्के ईलम तेरा होता तो अरजो मे दिल तो मेरा भी धडकता होता
बस सोचता हु वहा नज़ारा क्या होगा जहा तेरा मुका होगा वोह अश्क भी सूख जाये गे तेरे प्यार का वोह असर होगा आज तेरी दूरी फिर भी कट जायेगे पर उस मुकाम से लोटना मुश्किल होगा........ अमित खन्ना