Sunday, June 6, 2010

आरज़ू

बहुत दिनों से कोई आहट नहीं  हुई
तेरी कलम से गुफ्तगू नहीं हुई
किस कशमकश मे है तुम्हारी सोच
की किसी तुम्हारे ख्याल से मुलाकात नहीं हुई
आज फिर टपकती बूंदों की कलाहल में कुछ आरज़ू है
तेरे साथ मुशैरे मैं गुफ्तगू की आरज़ू है
चल दोस्त उन शब्दों  के जाल कुछ इस तरह बुने
कुछ दिल की बातो से दोस्ती के नये मायने गिने
इस कविता को अधुरा छोड़े देता हु
की मिल कर अपने ख्यालो से इसे पूरा करें...


अमित खन्ना

3 comments:

  1. खुदा करे कि दो ख्यालों से मिल कर ये अधूरी कविता अपनी पूर्णता पा ले
    जो लिखो तुम वो भावों को पिरोकर अपने में एक नया जहां समां ले
    जो वाकई में मिल जाये हर सोच उस दोस्त से
    तो क्या पता हर रोज एक सोच नया उदगार पा ले

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  2. Maikya Khanna Sab,
    Vadhiya kilhde ho tussi! Madhi spellinga nu hor sudhar lo ta ho jau balle-balle!!!
    Kalahal nahin Kolahal
    Mushaira nu tussi Mushayara likhna, tan Hindi wich saht transliterate ho juga!
    Hor 'hu' nu change karke 'Hoon' likh do!
    Baki Rab kollo dua mangda han ke tuhade khyal nu jaroor poora kare!

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